हम कहीं अकेले बैठे होते, सारे आँसू खुद ही बोते। हम हँसते भी तो रोते-रोते, गम के संग खुश होते-होते। हँसी घाव न भर पाती, जो ये रात बीच मे आ जाती। हम लाश बने राहों में चलते, सारे अरमां दिल मे जलते। दर्द सीढियाँ चढ़ता खट-खट, सिसकी दस्तक देती ठक-ठक। तन्हाई कच्चा खा जाती, जो ये रात बीच मे आ जाती। हम प्यार न इतना कर पाते, न तेरे प्रेमी बन पाते। गर कर पाते तो डर-डर के, हाँ, बन पाते तो मर-मर के। तुम मर-डर के इतनी न भाती, जो ये रात बीच मे न आती। तुम कहतीं थोड़ा और करो जी, बाहों में अपने भर लो पी। हम कहते अब न न न न, जलते दिन में न न न न। फिर बात ये मुझको अजमाती, जो ये रात बीच मे न आती। सूने कमरे का बन्द खेल, तेरा मेरा वो विकल मेल। तपती छाती की आह-आह, तेरी साँसों की वाह-वाह। सब तेज़ धूप में खो जाती, जो ये रात कहीं पर सो जाती।
कवि के विचार:
जैसे रहीम जी ने लिखा है – “कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।”, वैसे ही यहां रात को दो अलग कार्य करते हुए प्रदर्शित किया गया है। जहाँ शुरू की पंक्तियाँ रात के आने से होने वाले दर्द, पीड़ा और सूनापन को बताती है, वहीं अगली कुछ पंक्तियाँ रात के आने की वजह से मन मे घुमड़ने वाले प्यार और शीतलता को दर्शातीं हैं। अंत मे खुद को आंकने वाला सूना कमरा और प्रेमिका की तेज चलती सांसो को एक साथ संजो कर पूछा है कि ये सब कैसे हो पाता जो ये रात कहीं पर सो जाती?
बहुत ही अच्छा से वर्णन किया है आपने रात का।
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धन्यबाद रजनी जी 🙂
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बहुत खूब—-सब तेज़ धूप में खो जाती, जो ये रात कहीं पर सो जाती—-जबर्दस्त मिलन—–
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धन्यबाद सर 🙂
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I loved reading this post.
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Thanks 🙂
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Sir,
i want to know,
when will come your next Post…
Pls reply soon..
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Thanks,
Just posted one more 🙂
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