कवि की कविता

 न अंदर चैन, है बाहर पीड़ा,
 हर कवि के मन में एक ही कीड़ा।
 वो किसे लिखे और किसे सँवारे?
 अपनी स्याही से किसे उतारे?

 वो असंख्य भावों से भरा हुआ,
 वो खुद की माति से फिरा हुआ।
 किस-किस अनुभव से बना हुआ?
 कितने किस्सों में सना हुआ?

 एक यह कवि और एक वह कविता,
 रातों-रात कवि जिस संग जगता।
 कवि और नहीं अब रह सकता,
 दुःख कविता से बस कह सकता।

 क्योंकि, कविता न सुखी स्याही है,
 वह तो कवि से व्याही है।
 कवि एक रोज़ जो रोयेगा,
 तब खुद कविता को बोयेगा।

 सारे विचार वह साधेगी,
 चुन-चुन शब्दों में बाँधेगी।
 कुछ और वर्ष तब तरसेगी,
 फिर कविता गरज के बरसेगी।

 होगा सरावोर कवि उसमें,
 छोटी बूंदे सुख की जिसमें।
 कविता भी आँसू रोयेगी,
 कवि के पन्नों में सोयेगी।

 कवि एक यही कविता लिख ले,
 फिर देख उसे सजते हँस ले।
 कविता कवि को सहलायेगी,
 कवि की कविता कहलायेगी।

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